जल है तो कल है
जल जीवन का आदि स्रोत है। यह निर्विवाद रूप से स्थापित सत्य है कि जीवन की उत्पत्ति जल में ही हुई है और यह तथ्य भी प्रमाणित है कि विश्व की सभी सभ्यताओं का उद्भव और विकास नदियों के किनारे ही हुआ। इसीलिए नदियों को जीवन रेखा कहा जाता है। अपने विशेष गुण-धर्म के कारण जल धरती पर अस्तित्व की कुंजी रहा है। लेकिन वर्तमान समय तक आते-आते इसी जल की कमी के चलते जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है।
देखा जाये तो पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का केवल 3 प्रतिशत हिस्सा ही मानवोपयोगी है। इसमें से भी मात्र 1 प्रतिशत जल का हम उपयोग कर पाते हैं। वर्तमान दौर में इस 1 प्रतिशत जल की उपलब्धता पर भी संकट उत्पन्न हो आया है। आर्थिक विकास, औद्योगीकरण और जनसंख्या विस्फोट आदि के चलते जलवायु परिवर्तन और जल की खपत बढ़ने के कारण जल चक्र बिगड़ता जा रहा है। हालांकि धरती पर उपलब्ध कुल जल की मात्रा आज भी उतनी ही है जितनी आज से दो हजार वर्ष पूर्व थी, लेकिन आज की तुलना में तब विश्व की जनसंख्या मात्र 3 प्रतिशत ही थी। वर्षा आदि प्राकृतिक स्रोतों से उपलब्ध जल, खपत की तुलना में कहीं बहुत अधिक होता था जबकि आज स्थिति इसके विपरीत है।
भारत के संदर्भ में जल की उपलब्धता और आवश्यकता के मद्देनज़र देखा जाये तो स्थिति नाज़ुक और भविष्य चिंताजनक है। जल की मांग और आपूर्ति में लगातार असंतुलन बढ़ता जा रहा है। 1994 में भारत में प्रति व्यक्ति मीठे जल की उपलब्धता 6 हजार घनमीटर थी, जो वर्तमान में 2.5 हजार घनमीटर है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान नामक संस्था के अनुमान के मुताबिक़ 2025 तक यह आंकड़ा महज़ 1500 घनमीटर हो सकता है। ऐसी स्थिति में उत्पन्न होने वाले भयावह मंज़र का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है।
जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण की क्षति, जल संसाधनों का अति उपयोग / दुरूपयोग तथा जल संचयन और प्रबंधन की दुर्व्यवस्था के चलते पर्याप्त वर्षा होने के बावज़ूद भी देश के कई हिस्सों में पेयजल का संकट उत्पन्न हो आया है। भारत के अधिकांश क्षेत्रों को वर्षा ज़्यादा होने पर बाढ़ जैसी आपदा का सामना करना पड़ता है, जिसमें जान माल का भारी नुकसान होता है तो वर्षा कम होने पर भयंकर सूखे की मार झेलनी पड़ती है और पेयजल की कमी के चलते जीवन बचाना भारी हो जाता है। जबकि ठीक इसके विपरीत स्विट्ज़रलैंड और जर्मनी आदि यूरोपीय देशों में वर्षा का औसत भारत से अधिक होने के बावजूद भी इन देशों को कभी बाढ़ जैसी आपदा का सामना नहीं करना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर इजरायल और संयुक्त अरब अमीरात में अल्प वर्षा होने के बावज़ूद भी कभी पेयजल के संकट की स्थिति नहीं उत्पन्न होती। यह इन देशों में जल संरक्षण के क्षेत्र में किये गये बेहतरीन प्रयासों, उपायों के कारण ही संभव हो पाया है।
आज़ादी के समय भारत की जनसंख्या चालीस करोड़ थी, जो बढ़ते-बढ़ते आज तीन गुना से भी ज़्यादा हो गयी है। जबकि देश के प्राकृतिक जल स्रोतों और भूगर्भ स्थित जल में कहीं से भी किसी प्रकार की वृद्धि नहीं हुई, बल्कि और कमी ही आयी है। जनसंख्या वृद्धि के अनुपात के सापेक्ष जल की उपलब्धता में भी वृद्धि होनी चाहिए थी जो कि उचित जल प्रबंधन और वर्षा जल को संग्रह करके ही पूरा किया जा सकता था। यह नहीं हो पाया। जल संरक्षण, उसके समुचित उपयोग और भू-जल के पुनर्भरण या रिचार्जिंग पर समुचित ध्यान अब तक की किसी भी सरकारों ने नहीं दिया। राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी, सही नीतियों का अभाव और सबसे प्रमुख ऊपर से नीचे तक फैली भ्रष्टाचार की संस्कृति के कारण इस दिशा में कोई ठोस और कारगर उपाय अमल में नहीं आ पाया। जल संसाधन वृद्धि योजनाओं पर करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद भी समस्या ज्यों कि त्यों बनी हुई है। विश्व के सबसे समृद्धशाली भाग पश्चिमी अमरीका की औसत वर्षा से हमारे भारत की औसत वर्षा 6 गुना अधिक है। यह तथ्य सिद्ध करता है कि किसी क्षेत्र की समृद्धि वहाँ की औसत वर्षा की समानुपाती नहीं होती।
स्वतन्त्रता के बाद से देश ने हालांकि विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में काफी प्रगति की है। सूचना प्रौद्योगिकी में यह एक अग्रणी देश बन गया है। लेकिन देश की समूची जनता को पर्याप्त पेयजल उपलब्ध कराने के मामले में भारत दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा अभी बहुत पीछे है। विदेशों में 80 प्रतिशत पावर जेनरेशन जल से (हाइड्रो पावर) ही होता है। भारत नदियों का देश होने के बावज़ूद इस दिशा में अभी तक कुछ खास नहीं कर पाया। मानसून के दौरान वर्षा का जल इन्हीं नदियों से होता हुआ समुद्र में जा मिलता है और मूल्यहीन हो जाता है। वहीं दूसरी ओर गर्मियों में पठारी तथा रेगिस्तानी क्षेत्रों में पेयजल का गंभीर संकट उत्पन्न हो आता है। वर्षा के जल को संग्रहीत न करने और व्यर्थ जाने देने का खामियाज़ा इन क्षेत्रों को भुगतना पड़ता है। जल संग्रह के क्षेत्र में भारत को शीघ्रता से कदम उठाने की आवश्यकता है।
पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने जल संकट से उबरने के लिए तथा बाढ़ जैसी आपदा से सुरक्षा प्रदान करने के लिए नदियों को जोड़ने की पहल की थी। लेकिन उसके बाद आज तक इस दिशा में किसी भी सरकार ने कोई सार्थक कदम नहीं उठाया और न ही कोई सकारात्मक पहल की। भारत में हो रहे तेज़ी से शहरीकरण के चलते तालाब, झीलें जैसे परंपरागत जल संग्रह के स्रोतों पर अतिक्रमण कर लिया गया तथा जलापूर्ति के लिए भू-जल का अंधाधुंध दोहन किया गया। जिसके कारण भूमिगत जलस्तर में तेज़ी से गिरावट आयी। आज़ादी के समय भारत के मैदानी इलाकों में भू-जल का औसत स्तर 15 फुट था, जो आज 60 फुट तक पहुँच गया है। यह जल भी दूषित होकर पीने के सर्वथा अयोग्य हो चुका है। शुद्ध पेयजल 150 फुट ज़मीन के अंदर से प्राप्त हो रहा है।
धरती के अंदर तेज़ी से घट रहे जलस्तर को देखते हुए हालाँकि पूर्ववर्त्ती सरकारों ने पानी बचाओ के नाम पर अरबों रूपये खर्च कर डाला। लेकिन समस्या घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। क्योंकि सिवाय विज्ञापनबाजी के ठोस धरातल पर कोई कारगर उपाय अभी तक नहीं किया गया। इस प्रकार की विज्ञापनबाज़ी से हमें उबरना होगा। वर्षा के जल को संग्रहित करने के लिए नदियों को आपस में जोड़ना एक अच्छा विकल्प हो सकता है। इसके आलावा देश के हर जिले में, हर ब्लॉक में, यहाँ तक कि हर ग्राम पंचायत में इस प्रकार के कुएं (बोरवेल) की खुदायी की जानी चाहिए जिसके ज़रिये वर्षा के जल को भूगर्भ में संग्रहीत और दोहन के अनुपात में पुनर्भरण किया जा सके। इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में सिंचाई और पेयजल के लिए भू-जल का जितना दोहन होता है, उससे अधिक वर्षा जल से पुनर्भरण किया जा सकता है। इससे भूमिगत जलस्तर में वृद्धि होगी, प्रदूषित जल की मात्रा कम होते-होते बिलकुल ही समाप्त हो सकेगी। जलस्तर ऊपर उठने से ज़मीन की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है। वृक्ष हरे-भरे बने रहते हैं। सिंचाई के लिए लगने वाली जल की मात्रा में कमी आती है। इस प्रकार देश के हर गांव को हरा-भरा और खुशहाल बनाया जा सकता है।
जिन क्षेत्रों में वर्षा कम होती है, वहाँ नदियों को जोड़कर अधिक वर्षा वाले क्षेत्र के जल को पहुंचाया जा सकता है। जिस प्रकार बिजली के एक ग्रीड को दूसरे ग्रीड से जोड़ा जाता है, उसी प्रकार नदियों के प्रवाह को एक-दूसरे से जोड़कर जलापूर्ति को सतत जारी रखा जा सकता है। भारत का हर गांव कमोबेश किसी ना किसी छोटी-बड़ी नदी, उपनदी से लगा हुआ है। नदियों को जोड़कर हर गांव तक पानी पहुंचाया जा सकता है। इस जल का उपयोग देश पावर जेनरेशन (हाइड्रो पावर) के लिए भी कर सकता है। हर छोटी-छोटी नदियों को आपस में जोड़ते हुए यदि जगह-जगह एनिकट बनाया जाये तो देश का हर गांव हरा-भरा खुशहाल हो सकता है। इसके अलावा पर्यावरण के अनुकूल तथा जलवायु में सहायक वृक्ष जैसे- पीपल, आम, नीम, बरगद आदि लगाने की एक मुहिम भी सरकार को चलानी होगी। पर्याप्त वर्षा के लिए देश के हर नागरिक को पर्यावरण के अनुकूल और मानसून के लिए सहयोगी कम से कम एक पीपल, आम, नीम, बरगद या ऐसा ही कोई अन्य उपयोगी वृक्ष लगाने चाहिए। सरकार को एक ऐसी नीति बनानी चाहिए जिसके परिप्रेक्ष्यs में आने वाले पाँच वर्षों में कम से कम सवा सौ करोड़ वृक्ष लगाने का लक्ष्य पूरा किया जा सके।
एक संकल्प लेना होगा सरकार को तथा इस देश की जनता को। वृक्षारोपण, जल संरक्षण का उपाय हर आदमी अपने स्तर पर भी कर सकता है। बड़ी परियोजनाओं को छोड़ दिया जाये तो मनुष्य अपने निजी स्तर पर छोटे-छोटे उपायों से जल संरक्षण को बढ़ावा दे सकता है। जरूरत है तो सिर्फ संकल्प की और भविष्य के प्रति अपनी जवाबदेही की।
देखा जाये तो पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का केवल 3 प्रतिशत हिस्सा ही मानवोपयोगी है। इसमें से भी मात्र 1 प्रतिशत जल का हम उपयोग कर पाते हैं। वर्तमान दौर में इस 1 प्रतिशत जल की उपलब्धता पर भी संकट उत्पन्न हो आया है। आर्थिक विकास, औद्योगीकरण और जनसंख्या विस्फोट आदि के चलते जलवायु परिवर्तन और जल की खपत बढ़ने के कारण जल चक्र बिगड़ता जा रहा है। हालांकि धरती पर उपलब्ध कुल जल की मात्रा आज भी उतनी ही है जितनी आज से दो हजार वर्ष पूर्व थी, लेकिन आज की तुलना में तब विश्व की जनसंख्या मात्र 3 प्रतिशत ही थी। वर्षा आदि प्राकृतिक स्रोतों से उपलब्ध जल, खपत की तुलना में कहीं बहुत अधिक होता था जबकि आज स्थिति इसके विपरीत है।
भारत के संदर्भ में जल की उपलब्धता और आवश्यकता के मद्देनज़र देखा जाये तो स्थिति नाज़ुक और भविष्य चिंताजनक है। जल की मांग और आपूर्ति में लगातार असंतुलन बढ़ता जा रहा है। 1994 में भारत में प्रति व्यक्ति मीठे जल की उपलब्धता 6 हजार घनमीटर थी, जो वर्तमान में 2.5 हजार घनमीटर है। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान नामक संस्था के अनुमान के मुताबिक़ 2025 तक यह आंकड़ा महज़ 1500 घनमीटर हो सकता है। ऐसी स्थिति में उत्पन्न होने वाले भयावह मंज़र का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है।
जनसंख्या विस्फोट, पर्यावरण की क्षति, जल संसाधनों का अति उपयोग / दुरूपयोग तथा जल संचयन और प्रबंधन की दुर्व्यवस्था के चलते पर्याप्त वर्षा होने के बावज़ूद भी देश के कई हिस्सों में पेयजल का संकट उत्पन्न हो आया है। भारत के अधिकांश क्षेत्रों को वर्षा ज़्यादा होने पर बाढ़ जैसी आपदा का सामना करना पड़ता है, जिसमें जान माल का भारी नुकसान होता है तो वर्षा कम होने पर भयंकर सूखे की मार झेलनी पड़ती है और पेयजल की कमी के चलते जीवन बचाना भारी हो जाता है। जबकि ठीक इसके विपरीत स्विट्ज़रलैंड और जर्मनी आदि यूरोपीय देशों में वर्षा का औसत भारत से अधिक होने के बावजूद भी इन देशों को कभी बाढ़ जैसी आपदा का सामना नहीं करना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर इजरायल और संयुक्त अरब अमीरात में अल्प वर्षा होने के बावज़ूद भी कभी पेयजल के संकट की स्थिति नहीं उत्पन्न होती। यह इन देशों में जल संरक्षण के क्षेत्र में किये गये बेहतरीन प्रयासों, उपायों के कारण ही संभव हो पाया है।
आज़ादी के समय भारत की जनसंख्या चालीस करोड़ थी, जो बढ़ते-बढ़ते आज तीन गुना से भी ज़्यादा हो गयी है। जबकि देश के प्राकृतिक जल स्रोतों और भूगर्भ स्थित जल में कहीं से भी किसी प्रकार की वृद्धि नहीं हुई, बल्कि और कमी ही आयी है। जनसंख्या वृद्धि के अनुपात के सापेक्ष जल की उपलब्धता में भी वृद्धि होनी चाहिए थी जो कि उचित जल प्रबंधन और वर्षा जल को संग्रह करके ही पूरा किया जा सकता था। यह नहीं हो पाया। जल संरक्षण, उसके समुचित उपयोग और भू-जल के पुनर्भरण या रिचार्जिंग पर समुचित ध्यान अब तक की किसी भी सरकारों ने नहीं दिया। राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति की कमी, सही नीतियों का अभाव और सबसे प्रमुख ऊपर से नीचे तक फैली भ्रष्टाचार की संस्कृति के कारण इस दिशा में कोई ठोस और कारगर उपाय अमल में नहीं आ पाया। जल संसाधन वृद्धि योजनाओं पर करोड़ों रूपये खर्च करने के बाद भी समस्या ज्यों कि त्यों बनी हुई है। विश्व के सबसे समृद्धशाली भाग पश्चिमी अमरीका की औसत वर्षा से हमारे भारत की औसत वर्षा 6 गुना अधिक है। यह तथ्य सिद्ध करता है कि किसी क्षेत्र की समृद्धि वहाँ की औसत वर्षा की समानुपाती नहीं होती।
स्वतन्त्रता के बाद से देश ने हालांकि विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में काफी प्रगति की है। सूचना प्रौद्योगिकी में यह एक अग्रणी देश बन गया है। लेकिन देश की समूची जनता को पर्याप्त पेयजल उपलब्ध कराने के मामले में भारत दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा अभी बहुत पीछे है। विदेशों में 80 प्रतिशत पावर जेनरेशन जल से (हाइड्रो पावर) ही होता है। भारत नदियों का देश होने के बावज़ूद इस दिशा में अभी तक कुछ खास नहीं कर पाया। मानसून के दौरान वर्षा का जल इन्हीं नदियों से होता हुआ समुद्र में जा मिलता है और मूल्यहीन हो जाता है। वहीं दूसरी ओर गर्मियों में पठारी तथा रेगिस्तानी क्षेत्रों में पेयजल का गंभीर संकट उत्पन्न हो आता है। वर्षा के जल को संग्रहीत न करने और व्यर्थ जाने देने का खामियाज़ा इन क्षेत्रों को भुगतना पड़ता है। जल संग्रह के क्षेत्र में भारत को शीघ्रता से कदम उठाने की आवश्यकता है।
पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने जल संकट से उबरने के लिए तथा बाढ़ जैसी आपदा से सुरक्षा प्रदान करने के लिए नदियों को जोड़ने की पहल की थी। लेकिन उसके बाद आज तक इस दिशा में किसी भी सरकार ने कोई सार्थक कदम नहीं उठाया और न ही कोई सकारात्मक पहल की। भारत में हो रहे तेज़ी से शहरीकरण के चलते तालाब, झीलें जैसे परंपरागत जल संग्रह के स्रोतों पर अतिक्रमण कर लिया गया तथा जलापूर्ति के लिए भू-जल का अंधाधुंध दोहन किया गया। जिसके कारण भूमिगत जलस्तर में तेज़ी से गिरावट आयी। आज़ादी के समय भारत के मैदानी इलाकों में भू-जल का औसत स्तर 15 फुट था, जो आज 60 फुट तक पहुँच गया है। यह जल भी दूषित होकर पीने के सर्वथा अयोग्य हो चुका है। शुद्ध पेयजल 150 फुट ज़मीन के अंदर से प्राप्त हो रहा है।
धरती के अंदर तेज़ी से घट रहे जलस्तर को देखते हुए हालाँकि पूर्ववर्त्ती सरकारों ने पानी बचाओ के नाम पर अरबों रूपये खर्च कर डाला। लेकिन समस्या घटने के बजाय बढ़ती ही जा रही है। क्योंकि सिवाय विज्ञापनबाजी के ठोस धरातल पर कोई कारगर उपाय अभी तक नहीं किया गया। इस प्रकार की विज्ञापनबाज़ी से हमें उबरना होगा। वर्षा के जल को संग्रहित करने के लिए नदियों को आपस में जोड़ना एक अच्छा विकल्प हो सकता है। इसके आलावा देश के हर जिले में, हर ब्लॉक में, यहाँ तक कि हर ग्राम पंचायत में इस प्रकार के कुएं (बोरवेल) की खुदायी की जानी चाहिए जिसके ज़रिये वर्षा के जल को भूगर्भ में संग्रहीत और दोहन के अनुपात में पुनर्भरण किया जा सके। इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्रों में सिंचाई और पेयजल के लिए भू-जल का जितना दोहन होता है, उससे अधिक वर्षा जल से पुनर्भरण किया जा सकता है। इससे भूमिगत जलस्तर में वृद्धि होगी, प्रदूषित जल की मात्रा कम होते-होते बिलकुल ही समाप्त हो सकेगी। जलस्तर ऊपर उठने से ज़मीन की उर्वरा शक्ति भी बढ़ती है। वृक्ष हरे-भरे बने रहते हैं। सिंचाई के लिए लगने वाली जल की मात्रा में कमी आती है। इस प्रकार देश के हर गांव को हरा-भरा और खुशहाल बनाया जा सकता है।
जिन क्षेत्रों में वर्षा कम होती है, वहाँ नदियों को जोड़कर अधिक वर्षा वाले क्षेत्र के जल को पहुंचाया जा सकता है। जिस प्रकार बिजली के एक ग्रीड को दूसरे ग्रीड से जोड़ा जाता है, उसी प्रकार नदियों के प्रवाह को एक-दूसरे से जोड़कर जलापूर्ति को सतत जारी रखा जा सकता है। भारत का हर गांव कमोबेश किसी ना किसी छोटी-बड़ी नदी, उपनदी से लगा हुआ है। नदियों को जोड़कर हर गांव तक पानी पहुंचाया जा सकता है। इस जल का उपयोग देश पावर जेनरेशन (हाइड्रो पावर) के लिए भी कर सकता है। हर छोटी-छोटी नदियों को आपस में जोड़ते हुए यदि जगह-जगह एनिकट बनाया जाये तो देश का हर गांव हरा-भरा खुशहाल हो सकता है। इसके अलावा पर्यावरण के अनुकूल तथा जलवायु में सहायक वृक्ष जैसे- पीपल, आम, नीम, बरगद आदि लगाने की एक मुहिम भी सरकार को चलानी होगी। पर्याप्त वर्षा के लिए देश के हर नागरिक को पर्यावरण के अनुकूल और मानसून के लिए सहयोगी कम से कम एक पीपल, आम, नीम, बरगद या ऐसा ही कोई अन्य उपयोगी वृक्ष लगाने चाहिए। सरकार को एक ऐसी नीति बनानी चाहिए जिसके परिप्रेक्ष्यs में आने वाले पाँच वर्षों में कम से कम सवा सौ करोड़ वृक्ष लगाने का लक्ष्य पूरा किया जा सके।
एक संकल्प लेना होगा सरकार को तथा इस देश की जनता को। वृक्षारोपण, जल संरक्षण का उपाय हर आदमी अपने स्तर पर भी कर सकता है। बड़ी परियोजनाओं को छोड़ दिया जाये तो मनुष्य अपने निजी स्तर पर छोटे-छोटे उपायों से जल संरक्षण को बढ़ावा दे सकता है। जरूरत है तो सिर्फ संकल्प की और भविष्य के प्रति अपनी जवाबदेही की।