भारत का भ्रष्ट चिकित्सा तंत्र
हिमाचल प्रदेश में 38 वर्षों तक अपनी सेवाएं देने वाले, आस्ट्रेलियाई मूल के एक डाक्टर डेविड वर्जर ने भारतीय चिकित्सा तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार और यहाँ के चिकित्सकों की संवेदनहीनता को बयान करते हुए अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि भारत में 40 से 50 प्रतिशत तक मेडिकल टेस्ट बेवज़ह कराये जाते हैं, जबकि 20 प्रतिशत बड़ा आपरेशन सिर्फ और सिर्फ लोगों की जेबें ढीली करवाने के लिए किये जाते हैं.डाक्टर वर्जर ने भारत के अधिकाँश डाक्टरों को भावनाशून्य, संवेदनहीन और मानवीयता से परे कहा है.

दरअसल डाक्टर डेविड वर्जर के कथनानुसार चिकित्सकों की संवेदनहीनता और चिकित्सा के नाम पर मची लूट के लिए मेडिकल कॉउंसिल आफ इंडिया (एमसीआई ) को पूरी तरह ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. पिछले बरसों भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी के मामले में एमसीआई के अध्यक्ष डाक्टर केतन देसाई की सी.बी.आई द्वारा गिरफ्तारी डाक्टर वर्जर के कथन को सत्य करने के लिए काफी है. डाक्टर देसाई पर 1800 करोड़ रुपये की काली कमाई का आरोप था. यह काला धन उन्होंने अपने बीस वर्षों के अध्यक्षीय काल में प्राइवेट संस्थानों द्वारा संचालित मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने के एवज़ में रिश्वत लेकर जमा किया था. सी.बी.आई ने एमसीआई को सबसे भ्रष्ट संस्थाओं में शामिल किया है. गौर करने वाली बात यह भी है कि एक व्यक्ति 20 वर्षों से काउंसिल के अध्यक्ष पद पर रहकर भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी को अंजाम देता रहा और सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को इसकी खबर ना लगे यह एक असामान्य लगने वाली बात है.

चिकित्सा तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के पीछे कुछ चुनिंदा लोगों की धनलोलुपता की वह अवैध महत्वकांक्षाएं हैं, जो केतन देसाई जैसे लोगों के कन्धों पर सवार होकर परवान चढ़ती है. इसी महत्वाकांक्षा के चलते प्राइवेट मेडिकल कालेज खोलना या संचालित करना आज अवैध कमाई का एक ज़रिया बन गया है.

निर्धारित मानकों को पूरा किये बिना ही करोड़ों की रिश्वत देकर आज निजी मेडिकल कॉलेजों के संचालक मान्यता प्राप्त कर लेते हैं और फिर दी गयी रिश्वत का कई गुना प्रवेश के लिए इच्छुक छात्रों से डोनेशन के नाम पर रिश्वत के रूप में वसूलते हैं. अमूमन इन कॉलेजों में ना तो मेडिकल शिक्षा देने के लिए विशेषज्ञ डॉक्टर होते हैं और ना ही एमसीआई द्वारा निर्धारित संख्या के अनुरूप विस्तारों वाला अस्पताल. फिर भी ये एम्.बी.बी.एस की डिग्री देने की काबिलियत रिश्वत के बल पर प्राप्त कर लेते हैं. इन मेडिकल कॉलेजों से डाक्टर बनने का प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए, जो कि बिना डोनेशन दिये नहीं मिलता, प्रत्येक छात्र को 1 करोड़ से लेकर डेढ़ करोड़ रूपये तक डोनेशन के नाम पर रिश्वत के रूप में देनी पड़ती है. इसके अलावा कालेज की फीस अलग से देय होती है. इस हिसाब से ऐसे एक मेडिकल कालेज को, जिसे एमसीआई द्वारा 100 सीटों पर प्रवेश देने की मान्यता मिली हुई होती है, केवल दाखिले के माध्यम से ही करोड़ों की आमदनी हो जाती है. यही कारण है कि मेडिकल कालेज खोलना आज एक व्यवसाय बन चुका है. भारत भर के निजी मेडिकल कॉलेजों में से 60 प्रतिशत कालेज बड़े नेताओं के हैं. इसके अलावा बड़े आइएएस अफसरों, उच्च न्यायालयों के जजों ने अपने करीबियों के नाम से खोल रखा है. इस खेल में सरकारी ज़मीनों पर अवैध कब्जा वाला खेल भी सम्मिलित है.

उत्तर भारत के निजी मेडिकल कॉलेजों का हाल तो और भी बुरा है. लगभग सभी मेडिकल कॉलेजों के कार्यालयों में पैठ रखने वाले दलाल प्रवेश लेने के इच्छुक छात्रों से मोलभाव कर कीमत तय करते हैं और फिर प्रबंधन समिति के विशेष व्यक्ति की सहमति मिलने पर प्रवेश की योग्यता पर मुहर लगाते हैं. दरअसल यह सारा खेल बड़े सुनियोजित तरीके से षड्यंत्र रचकर खेला जाता है. इस खेल की पहली सीढ़ी सीपीएमटी की परीक्षा से शुरू होती है. दरअसल पैसों और रसूख के बल पर सीपीएमटी के पूरे सिस्टम को ध्वस्त कर दिया जाता है. अपात्र प्रवेश पा जाते हैं, जबकि योग्य छात्र प्रवेश से वंचित रह जाते हैं. मध्यप्रदेश के व्यापमं द्वारा आयोजित सीपीएमटी के फर्जीवाड़े का खुलासा मेडिकल कॉलेजों, दलालों तथा सम्बंधित विभागों की आपसी मिली भगत की इस भ्रष्टाचारी तस्वीर को उजागर करने के लिए पर्याप्त है.

इस प्रकार करोड़ों की रिश्वत देकर एमबीबीएस की डिग्री हासिल करने वाला छात्र जब चिकित्सा के पेशे में कदम रखता है तो उसका प्रमुख ध्येय होता है, पढ़ाई के लिए खर्च की गयी रकम का कई गुना हासिल करना. इसके लिए उसे सारी संवेदनाओं, भावनाओं और मानवीयता को ताक पर रखना पड़ता है. सवा सौ करोड़ की आबादी वाले इस देश में प्रधानमंत्री से लेकर समाज की सबसे निचली इकाई तक को यदा-कदा इलाज के लिए डाक्टर के पास जाना ही पड़ता है. अमीर और अर्थ संपन्न व्यक्ति तो मोटी फीस वसूलने वाले बड़े डाक्टर या महंगे प्राइवेट अस्पतालों में जाकर अपना ईलाज कराने में सक्षम होते हैं किंतु गरीब के लिए यह संभव नहीं है. लिहाज़ा जब वह सरकारी मेडिकल कॉलेजों या अस्पतालों में पहुंचता है तो वहाँ अव्यवस्था और भ्रष्टाचार मुंह बाए उसका इंतज़ार कर रहे होते हैं. सरकारी अस्पतालों में नियुक्त डाक्टर प्रायः मौजूद ही नहीं होते और अगर होते भी हैं तो ईलाज के लिए आये मरीज को बेवज़ह की जांच के लिए बाहर वहाँ भेज दिया जाता है, जहां से प्रति मरीज के हिसाब से डाक्टर को कमीशन प्राप्त होता है. कमोबेश यही स्थिति दवाओं को लेकर है. ईलाज के लिए महंगी लेकिन काम गुणवत्ता वाली दवाएं डाक्टर इसलिए लिखता है क्योंकि इन दवाओं को बनाने वाली कंपनियों से उसे रिश्वत रूपी कमीशन प्राप्त हो रहा होता है. उन सरकारी मेडिकल कॉलेजों में, जो किसी न किसी गंभीर रोग का ईलाज करने में सक्षम होते हैं, अव्यवस्था अगर है तो या तो सरकारी धनाभाव के कारण अथवा आये हुए सरकारी धन के बन्दरबाँट के कारण. पूर्वोत्तर भारत के जिलों में बारिश के दिनों में फैलने वाली जानलेवा बीमारी इंसेफ्लाइटिस का इलाज करने में सक्षम एक मात्र मेडिकल कालेज, जो गोरखपुर में स्थित है, वहाँ इस बीमारी के इलाज के लिए आने वाले मरीजों में से 30 प्रतिशत मौत के मुंह में इसलिए समा जाते हैं क्योंकि इस मेडिकल कालेज को देने के लिए सरकार के पास पैसे नहीं है. पिछले 20 वर्षों में इस बीमारी से लगभग 50 हजार लोगों की मृत्यु हो चुकी है, जिसमें 70 प्रतिशत मासूमों की संख्या है. ये आंकड़े बताते हैं कि पिछले बीस बरसों से बारी-बारी से उत्तर प्रदेश की सत्ता संभालनी वाली सपा और बसपा सरकार ने सैफई महोत्सव और हाथी की मूर्तियों पर खर्च की गयी राशि का आधा भी अगर इस जानलेवा बीमारी से निपटने के लिए खर्च किया होता तो इस बीमारी से इस क्षेत्र के लोगों को निजात मिल जाती.

चिकित्सा तंत्र में भ्रष्टाचार का एक कारण सरकार की उदासीनता के चलते समान नागरिक सुविधाओं का न होना भी है. सरकारी अस्पतालों की कमी, रोग विषयक विभिन्न जांच के लिए लेब्रोरेट्रीज की कमी, जनसंख्या के अनुपात में डाक्टरों की कमी होना इत्यादि ऐसे कारण हैं जिससे रोगियों को मजबूरन प्राइवेट अस्पतालों का रुख करना पड़ता है, जहां वे शोषित होने को मज़बूर होते हैं. एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में प्रति दस हज़ार की आबादी पर एक डाक्टर नियुक्त है जबकि अमेरिका में यही आंकड़ा प्रति 548 पर एक डाक्टर का है. इसके अलावा दुनिया के दो देश, पहला - चीन और दूसरा - टर्की, ऐसे हैं जहां मेडिकल की शिक्षा हासिल करने वाले छात्रों को पढ़ाई के साथ-साथ सारी सुविधाएं निःशुल्क प्रदान की जाती हैं. यही कारण है कि वहाँ के डाक्टर अपने मरीजों का शोषण नहीं करते.

भारत जैसे विशाल जनसंख्या वाले देश में नागरिक सुविधाओं में से चिकित्सा सुविधा को प्राथमिकता देना सरकार का प्रथम कर्तव्य बनता है. देश की सत्तर फीसदी जनसंख्या आज भी गांवों में निवास करती है, जहां जीवन की मूलभूत सुविधाओं का अकाल पड़ा हुआ है. वहाँ पर्याप्त चिकित्सा सुविधा की उपलब्धता की उम्मीद करना मुंगेरी लाल के सपने जैसा ही लगता है. फिर भी देश का नागरिक स्वस्थ - भारत स्वच्छ - भारत का नारा लगाने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ओर आशा भरी नज़रें लगाए बैठा है. मेडिकल क्षेत्र में ऊपर से नीचे तक फैले इस भ्रष्टाचार और काले कारोबार को रोकने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कौन सा कदम उठाते हैं, यह देखने की बात होगी. और यह भी कि रिश्वतखोर, भ्रष्टाचारी और निरंकुश हो चली अफसरशाही स्वस्थ भारत के नारे को असली जामा पहना सकेगी?

हालांकि केंद्र सरकार के दिशा निर्देश पर पिछले साल एमसीआई ने विजन 2015 का लक्ष्य रखा था, जिसके तहत नये सुपर स्पेशलिटी हॉस्पीटल खोलने के साथ ही नये निजी मेडिकल कॉलेजों को मान्यता देने के नियमों में ढील देने तथा पुराने मेडिकल कॉलेजों में सीटों की बढ़ोतरी करने का भी प्रावधान रखा गया. इस विजन 2015 में अब तक तो कुछ खास हुआ नहीं जबकि आवश्यकता इससे कहीं बहुत आगे की है. देश के प्रत्येक जनपद में या यूँ कह लें प्रत्येक संसदीय क्षेत्र में 500 सीटों की क्षमता वाले दो मेडिकल खोले जाएँ तो प्रत्येक साल 1000 डॉक्टर प्रति जनपद के हिसाब से 5 लाख 42 हजार डॉक्टर हर साल देश में तैयार होंगे. आने वाले कुछ ही वर्षों में किसी भी गरीब को चिकित्सकीय सुविधा के आभाव में मरना नहीं पड़ेगा. प्रत्येक नागरिक को न केवल चिकित्सा सुविधा उपलब्ध होगी वरन रोज़गार के अवसर भी बढ़ेंगे. इन मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लेने वाले छात्रों को किसी प्रकार की रिश्वत न देनी पडी यह भी सरकार को सुनिश्चित करना पडेगा. जिससे कि ये डाक्टर समाज सेवा के लिए तत्पर हो सकें, जो कि इस पेशे का मूल सिद्धांत है.

बीते 70वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से माननीय प्रधान मंत्री ने 1 लाख रूपये तक की मेडिकल सुविधा गरीबों को देने की घोषणा की है. जबकि इस देश में किसी अमीर के छोटे से ऑपरेशन का खर्च ही 5 से 7 लाख रूपये आता है और वह इसका 100 प्रतिशत इंश्युरेंस भी प्राप्त कर लेता है. आज देश के गरीबों का इलाज भगवान ही करता है, डॉक्टर तो नहीं ही करते. इस असमानता की खाई को पाटने की नितांत आवश्यकता है. क्या माननीय प्रमं नरेन्द्र मोदी इस ओर भी ध्यान देंगे.