कृषि : सब्सिडी की लूट
प्राइमरी से लेकर उच्च कक्षाओं तक यह पढ़ाया जाता रहा है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। जाहिर है कि कृषि प्रधान होने के नाते देश में किसानों की संख्या भी अधिक है, जिनके कंधों पर देश के हर नागरिक को खाद्यान्न उपलब्ध कराने का बोझ है। किसान यह बोझ उठता भी बड़ी ख़ुशी से है। साल के बारहो महीने ठिठुरते हुए, भीगते हुए और भयंकर लू के थपेड़ों से तपते हुए धरती का सीना चीरकर सोना उपजाने के कर्तव्य पथ पर वह चलता रहता है। इस पथ पर चलते हुए उसे कई बार खली पेट सोना भी पड़ता है। फिर भी वह अपने श्रम और उपज की उचित कीमत मिल जाने को लेकर आशान्वित है। लेकिन लगत की तुलना में उपज का कम मूल्य मिलना देश के किसानों के आत्महत्या का कारण बनता है।
किसानों की आर्थिक स्थिति कैसे दुरुस्त हो ? उनकी आय कैसे बढे ? इसे लेकर सरकार योजनाएं बनाती है। सरकार के दिशा-निर्देशों को देखकर लगता है कि उसका उद्देश्य किसानों को आत्मनिर्भर बनाना है। इसलिए वह कृषि क्षेत्र में रोज़गार सृजन, छोटे और मझोले किसानों को नयी उन्नत तकनीक उपलब्ध कराने में भी मदद करती है। कई बार सरकार किसानों की मदद नगद देकर करती है और कई बार सब्सिडी के तौर पर। दुनिया के अधिकांश देशों की तरह भारत में भी सरकार कृषि से जुड़े विभिन्न मदों में कृषि सब्सिडी के नाम पर हज़ारों करोड़ रुपये खर्च करती है। कुछ किसान नेता और खेती से जुड़े विशेषज्ञ सवाल ज़रूर पूछते हैं कि सब्सिडी के लिए दिया जा रहा पैसा किसानों के पास पहुँच भी रहा है या नहीं ? यदि यह पैसा किसानों के पास पहुंच रहा है तो फिर देश के लाखों किसानों को आत्महत्या क्यों करनी पड़ी ? देश में सब्सिडी सबसे पहले उर्वरक, सिंचाई और बिजली के लिए लागू की गयी। 1960 में आयी हरितक्रांति में सब्सिडी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जब सरकार सब्सिडी देने में इतनी उदार है तो फिर किसानों के आत्महत्या करने की घटनाएं यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि सब्सिडी किसानों तक पहुँच नहीं रही है। इतना तो स्पष्ट है कि कमी सब्सिडी में नहीं, बल्कि सब्सिडी वितरण की प्रक्रिया में है। यदि सब्सिडी का पैसा किसानों तक सही रूप से पहुंचे तो देश की कृषि व्यवस्था जो निराशाजनक और चिंतनीय है, आज अत्यंत उन्नत होती और किसानों को आत्महत्या नहीं करनी पड़ती।
सच तो यह है कि पिछले 25 वर्षों से रासायनिक खाद और फसलों की सुरक्षा और उत्पादन वृद्धि के लिए दवा बनाने वाली कंपनियां इस देश के किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को फ़र्ज़ी तरीके से दोनों हाथों से लूट रही हैं। यूरिया, डीएपी, एमपीके और सुपर फास्फेट आदि रासायनिक खाद बनाने वाली कंपनियां फ़र्ज़ी बिल के आधार पर सरकार द्वारा किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी का 25 से 30 प्रतिशत हिस्सा हड़प कर जाती हैं।
मैं देश के प्रधान मंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी से निवेदन करता हूँ कि सीबीआई के माध्यम से इन कंपनियों की जाँच कराएं। मेरा दावा है इन कंपनियों द्वारा फ़र्ज़ी तरीके से लूटी जा रही सब्सिडी की यह राशि 20 से 25 हज़ार करोड़ रूपये की होगी। गरीब किसान के हक़ को लूटकर ये बड़े औद्योगिक घराने उसे आत्महत्या के लिए विवश करने के भी अपराधी हैं। हालांकि सब्सिडी लागू होने के बाद यह लूट बहुत सीमित थी। लेकिन 1990 के बाद यह दिन-प्रतिदिन बढ़कर एक भयंकर भ्रष्टाचार का रूप ले चुका है। भारत सरकार अगर सीबीआई से जांच कराये तो इसका खुलासा हो सकता है। इस लूट में सरकारी प्रयोगशालाओं के अधिकारी, कर्मचारी भी शामिल हैं। उन प्रयोगशालाओं के, जहां रासायनिक उर्वरक और कृषि उपयोग में लायी जाने वाली रासायनिक दवाओं के सैम्पल पास किये जाते हैं, अधिकारी रिश्वत लेकर गलत सैम्पल पास कर देते हैं जिसका परिणाम किसान को अधिक लागत और कम उत्पादन के रूप में भुगतना पड़ता है।
जिस प्रकार नकली दूध और नकली दवाओं से नुकसान होता है उसी प्रकार नकली खाद तथा कृषि रक्षा के नाम पर बनाने वाली नकली दवाएँ भी फसलों के उत्पादन को प्रभावित करती हैं। कृषि उपयोग में लगने वाली दवाएं 50 प्रतिशत नकली हैं। बाकी 50 प्रतिशत में मानक की दृष्टि से आधा ही कारगर हैं बाकी बेकार और हानिकारक पदार्थ शामिल होते हैं। जिनके उपयोग से फसलों के उत्पादन में कमी आती है जिसकी वजह से किसानों को आर्थिक नुकसान पहुँचता है और उसे आत्महत्या करनी पड़ती है।
गरीब किसानों के हक़ मारने वाली ये कंपनियां अक्सर ये दावा करती हैं कि कृषि उपयोग में आने वाले उर्वरक इंडस्ट्रीज उपयोग के लिए अलग नाम से बेचे जाते हैं, जबकि हक़ीक़त में ऐसा है नहीं। सीबीआई अगर इन कंपनियों की ऑडिट कराये तो महीने भर के अंदर सारा घोटाला सामने आ जायेगा। ऑडिट की सामान्य प्रक्रिया है कि जितना कच्चा माल होगा, उत्पादन भी उतना ही होगा। अतः जितना कच्चा माल आयात हुआ या सरकार ने उपलब्ध कराया और जो डिस्पैच हुआ, अगर जाँच हो तो इसमें 25 से 30 प्रतिशत तक का अन्तर अवश्य मिल जायेगा। यह वही अंतर है जो किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को इन कंपनियों ने फर्जी तरीके से लूटा है और जिनकी वजह से किसानों को आत्महत्या करनी पड़ी है।
किसानों को हर तरह से खुशहाल बनाने के नाम पर जिस प्रकार उनका शोषण हो रहा है और उनके हक़ की सब्सिडी जिस प्रकार लूटी जा रही है, उसकी जाँच अवश्य होनी चाहिए। उर्वरक कंपनियों को सब्सिडी देने से कई बार कागज़ में उर्वरक किसानों तक तो पहुंचता है, लेकिन यह महज़ कागज़ी कार्रवाई ही होती है और इसी फर्ज़ी कार्रवाई के बल पर कंपनियां सरकार से मिलने वाली सब्सिडी हड़प कर जाती हैं।
भारत सरकार अथवा सीबीआई अगर चाहेगी तो कृषि विभाग के इस भ्राष्टाचार की पूरी जानकारी मैं प्रस्तुत का सकता हूँ। मेरे पास इन सारे घोटालों की विस्तृत रिपोर्ट है। नकली खाद, नकली दवाएं तथा 20 वर्षों से कंपनियों ने जिस तरह गलत बिल और गलत बाऊचर बनाकर किसानों का हक़ लूट रहीं हैं उनकी पूरी जानकारी मैं दे सकता हूँ। यहां तक कि फरीदाबाद स्थित सेन्ट्रल लेबोरेटरीज के अधिकारियों की इस घोटाले में संलिप्तता भी मैं साबित कर सकता हूँ। इन कंपनियों की पिछले 20 वर्षों से अभी तक कोई जाँच नहीं हुई। क्योंकि सामान्यतः जाँच अधिकारी रिश्वत लेकर अपना मुंह बंद कर लेते हैं।
किसानों की आर्थिक स्थिति कैसे दुरुस्त हो ? उनकी आय कैसे बढे ? इसे लेकर सरकार योजनाएं बनाती है। सरकार के दिशा-निर्देशों को देखकर लगता है कि उसका उद्देश्य किसानों को आत्मनिर्भर बनाना है। इसलिए वह कृषि क्षेत्र में रोज़गार सृजन, छोटे और मझोले किसानों को नयी उन्नत तकनीक उपलब्ध कराने में भी मदद करती है। कई बार सरकार किसानों की मदद नगद देकर करती है और कई बार सब्सिडी के तौर पर। दुनिया के अधिकांश देशों की तरह भारत में भी सरकार कृषि से जुड़े विभिन्न मदों में कृषि सब्सिडी के नाम पर हज़ारों करोड़ रुपये खर्च करती है। कुछ किसान नेता और खेती से जुड़े विशेषज्ञ सवाल ज़रूर पूछते हैं कि सब्सिडी के लिए दिया जा रहा पैसा किसानों के पास पहुँच भी रहा है या नहीं ? यदि यह पैसा किसानों के पास पहुंच रहा है तो फिर देश के लाखों किसानों को आत्महत्या क्यों करनी पड़ी ? देश में सब्सिडी सबसे पहले उर्वरक, सिंचाई और बिजली के लिए लागू की गयी। 1960 में आयी हरितक्रांति में सब्सिडी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जब सरकार सब्सिडी देने में इतनी उदार है तो फिर किसानों के आत्महत्या करने की घटनाएं यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि सब्सिडी किसानों तक पहुँच नहीं रही है। इतना तो स्पष्ट है कि कमी सब्सिडी में नहीं, बल्कि सब्सिडी वितरण की प्रक्रिया में है। यदि सब्सिडी का पैसा किसानों तक सही रूप से पहुंचे तो देश की कृषि व्यवस्था जो निराशाजनक और चिंतनीय है, आज अत्यंत उन्नत होती और किसानों को आत्महत्या नहीं करनी पड़ती।
सच तो यह है कि पिछले 25 वर्षों से रासायनिक खाद और फसलों की सुरक्षा और उत्पादन वृद्धि के लिए दवा बनाने वाली कंपनियां इस देश के किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को फ़र्ज़ी तरीके से दोनों हाथों से लूट रही हैं। यूरिया, डीएपी, एमपीके और सुपर फास्फेट आदि रासायनिक खाद बनाने वाली कंपनियां फ़र्ज़ी बिल के आधार पर सरकार द्वारा किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी का 25 से 30 प्रतिशत हिस्सा हड़प कर जाती हैं।
मैं देश के प्रधान मंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी से निवेदन करता हूँ कि सीबीआई के माध्यम से इन कंपनियों की जाँच कराएं। मेरा दावा है इन कंपनियों द्वारा फ़र्ज़ी तरीके से लूटी जा रही सब्सिडी की यह राशि 20 से 25 हज़ार करोड़ रूपये की होगी। गरीब किसान के हक़ को लूटकर ये बड़े औद्योगिक घराने उसे आत्महत्या के लिए विवश करने के भी अपराधी हैं। हालांकि सब्सिडी लागू होने के बाद यह लूट बहुत सीमित थी। लेकिन 1990 के बाद यह दिन-प्रतिदिन बढ़कर एक भयंकर भ्रष्टाचार का रूप ले चुका है। भारत सरकार अगर सीबीआई से जांच कराये तो इसका खुलासा हो सकता है। इस लूट में सरकारी प्रयोगशालाओं के अधिकारी, कर्मचारी भी शामिल हैं। उन प्रयोगशालाओं के, जहां रासायनिक उर्वरक और कृषि उपयोग में लायी जाने वाली रासायनिक दवाओं के सैम्पल पास किये जाते हैं, अधिकारी रिश्वत लेकर गलत सैम्पल पास कर देते हैं जिसका परिणाम किसान को अधिक लागत और कम उत्पादन के रूप में भुगतना पड़ता है।
जिस प्रकार नकली दूध और नकली दवाओं से नुकसान होता है उसी प्रकार नकली खाद तथा कृषि रक्षा के नाम पर बनाने वाली नकली दवाएँ भी फसलों के उत्पादन को प्रभावित करती हैं। कृषि उपयोग में लगने वाली दवाएं 50 प्रतिशत नकली हैं। बाकी 50 प्रतिशत में मानक की दृष्टि से आधा ही कारगर हैं बाकी बेकार और हानिकारक पदार्थ शामिल होते हैं। जिनके उपयोग से फसलों के उत्पादन में कमी आती है जिसकी वजह से किसानों को आर्थिक नुकसान पहुँचता है और उसे आत्महत्या करनी पड़ती है।
गरीब किसानों के हक़ मारने वाली ये कंपनियां अक्सर ये दावा करती हैं कि कृषि उपयोग में आने वाले उर्वरक इंडस्ट्रीज उपयोग के लिए अलग नाम से बेचे जाते हैं, जबकि हक़ीक़त में ऐसा है नहीं। सीबीआई अगर इन कंपनियों की ऑडिट कराये तो महीने भर के अंदर सारा घोटाला सामने आ जायेगा। ऑडिट की सामान्य प्रक्रिया है कि जितना कच्चा माल होगा, उत्पादन भी उतना ही होगा। अतः जितना कच्चा माल आयात हुआ या सरकार ने उपलब्ध कराया और जो डिस्पैच हुआ, अगर जाँच हो तो इसमें 25 से 30 प्रतिशत तक का अन्तर अवश्य मिल जायेगा। यह वही अंतर है जो किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को इन कंपनियों ने फर्जी तरीके से लूटा है और जिनकी वजह से किसानों को आत्महत्या करनी पड़ी है।
किसानों को हर तरह से खुशहाल बनाने के नाम पर जिस प्रकार उनका शोषण हो रहा है और उनके हक़ की सब्सिडी जिस प्रकार लूटी जा रही है, उसकी जाँच अवश्य होनी चाहिए। उर्वरक कंपनियों को सब्सिडी देने से कई बार कागज़ में उर्वरक किसानों तक तो पहुंचता है, लेकिन यह महज़ कागज़ी कार्रवाई ही होती है और इसी फर्ज़ी कार्रवाई के बल पर कंपनियां सरकार से मिलने वाली सब्सिडी हड़प कर जाती हैं।
भारत सरकार अथवा सीबीआई अगर चाहेगी तो कृषि विभाग के इस भ्राष्टाचार की पूरी जानकारी मैं प्रस्तुत का सकता हूँ। मेरे पास इन सारे घोटालों की विस्तृत रिपोर्ट है। नकली खाद, नकली दवाएं तथा 20 वर्षों से कंपनियों ने जिस तरह गलत बिल और गलत बाऊचर बनाकर किसानों का हक़ लूट रहीं हैं उनकी पूरी जानकारी मैं दे सकता हूँ। यहां तक कि फरीदाबाद स्थित सेन्ट्रल लेबोरेटरीज के अधिकारियों की इस घोटाले में संलिप्तता भी मैं साबित कर सकता हूँ। इन कंपनियों की पिछले 20 वर्षों से अभी तक कोई जाँच नहीं हुई। क्योंकि सामान्यतः जाँच अधिकारी रिश्वत लेकर अपना मुंह बंद कर लेते हैं।